Sunday 28 September 2014

‘डर’


ये एक ऐसी भावना है जिसके बारे में सबको पता है और अक्सर सामना भी होता है पर मै यहाँ पर भूत – प्रेत के डर की बात नही कर रही हूँ बल्कि उस डर की बात कर रही हूँ जिसकी वजह से व्यक्ति आगे बढना छोड़ देता है कुछ नया करना छोड़ देता है और खुद को अपनी भावनाओं को मारना शुरु कर देता है

ये डर ,बुरे सघर्ष, बार-बार के असफलता,बार-बार बनने वाले मजाक से मिला, एक ताउम्र बेतिहा दर्द व् तकलीफ देंने वाला अनुभव है जो की अनजान आशंकाओ को जन्म देता है ,साथ ही कुछ नया करने से पहले ही निराशाजनक परिणामो के बारे में व्यक्ती सोच-सोच कर डरता रहता है हम इससे कितना भी भागना चाहे,पीछा छुड़ाना चाहे या फिर समाना करे ये हमेशा दर्द ही देता है इससे व्यक्ती की सोच संकुचित,शंकी व् हर वक्त बुरा सोचने वाली बन जाती है ,पर ताजुब्ब की बात ये है कि ये डर जन्म से हमारे अंदर नही होता है, बल्कि इसका जन्म सबसे पहले हमारे जन्मदाता ही हमारे मन में करते है l हमारे दिमाग में अक्सर कई तरह के ‘डर’ अपना काम करते रहते हैl इन सब मै सबसे बड़ा ‘डर“जिन्दगी की दौड़ में हार जाने” का है पर सच्चाई तो ये है की हम “जिन्दगी की दौड़ को नहीं बल्कि अपनी जिन्दगी को हार रहे है l

ये डर किस तरह हमारी जिन्दगी में प्रवेश करता है ये खुद हमे भी पता नही चलता है l जब हमारे माता-पिता हमसे ये कहते है की “तुम कुछ नही कर सकते है बस एक बोझ है” या हमारे टीचर कहते है की “हमे तुम से कोई आशा नही” या जब हम कुछ करने की कोशिश करते है और सफल नही होते तब हमारे माता-पिता सब रिश्तेदारो के सामने ये कहते है की “तुम कुछ नही कर सकते/सकती न ही जिन्दगी कभी कुछ कर पाओगे ” और इस तरह की कई आलोचनाये जो हमे पीछे की तरफ धकेल देती है जिससे हमारे अंदर निराशाजनक भवनाये पनपने लगती है और इस तरह हार का ,मजाक बनने का,असफल हो जाने का ‘डर’ हमारे अंदर जन्म लेता हैl इस तरह की आलोचनाये तब तक चलती रहती है जब तक हम अपने आप को, नये ख्याल, उमंगो को एक बॉक्स में बंद नही कर देते और सबकी तरह हर समय, हर नई चीज, नये विचारो, व् भविष्य को लेकर डरना शुरू नही कर देते l

हम सभी अपने असफल होने से डरते है पर हकीकत ये है की हम सभी अपनी- अपनी ज़िन्दगी में कही न कही असफल  है क्योकि जब हम अपने वर्तमान में इतना डरते है तो किस भविष्य का निर्माण करेगे फिर भले ही हम कितनी ही सुख सुविधाए जुटा ले इनको खोने का डर तो हमारे अंदर हमेशा ही बना रहेगा और हम अपने अवचेतन मन से ये ‘डर’ अपनी आने वाली पीढी में दे कर जायेगे, तो क्या ये एक तरह असफलता  नही है ?


इस डर को खत्म करने के कई किताबी बाते मै यह लिख सकती हूँ, पर हकीकत तो ये है की व्यक्ति के मन में बचपन से पल रहे इस डर को खत्म करना बेहद कठिन व् नामुमकिन सी चीज है पर यदि हम अपने बच्चों ,या दोस्तों या फिर छोटे भाई बहनों में इस डर को ट्रान्सफर करना बदं कर दे तो शायद हम इस डर पर जीत जायेगे बस इतना कहना की मुझे तुम पर यकीन है तुम ही ये काम कर सकते हो, क्या हुआ जो इस बार सफल नहीं हुए फिर से कोशिश करो और तब तक करते रहो जब तक तुम्हे सफलता नहीं मिलती क्योंकि मुझे तुम पर यकीन है की तुम जरुर सफल होगे बस इतनी सी चीज आपके अपने पर एक जादुई असर करेगा और जब वो अपने जीवन में जीत हासिल करेगे तब आप भी खुद को जीता हुआ महसूस करेगे या ये कहे की शायद तभी आप भी अपनी जिन्दगी को जीता हुआ महसूस कर पायेगे  


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